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उम्मीद

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हर वक़्त निगाहें टिकी रहती है आसमान पर काश वोह आसमान मेरे पिंजरे में आ जाए हर वक़्त खोया रहता हूँ वोह बचपन की यादों में काश वोह खुशहाल  बचपन वापस मेरी ज़िन्दगीमें आ जाए हर वक़्त सर रखता हूँ मरहूम तेरी कबर पर काश तेरे बेजान जिस्म में वापस जान आ जाए क्यूँ नहीं? आखिर सूरज और चाँद ने भी तो मनमानी की है! उसने भी तो आसमान से अपनी दीवार और छत बनाई है! क्यूँ नहीं? बारिश की वोह बूँद ने भी तो सूरज की किरण को चूमकर बादलको गले लगाया है! क्यूँ नहीं? सूरज भी तो सारी रात रूठकर सुबह मुस्कुराता हुआ वापस आता है? क्यूँ नहीं? केहते है मांगो तो खुदा भी मिल जाता है तो फिर मरहूम की जान कौनसी बड़ी बात है? - Musten Jiruwala